उमेश बागरेचा
बालाघाट (पद्मेश न्यूज)। बालाघाट जिले में नक्सली है? क्या वे सक्रिय है? नक्सली वारदातों से क्या बालाघाट वासियों में दहशत है? क्या उन्हे अपने दैनन्दिनी दिनचर्या में नक्सली डर का अहसास रहता है। क्या एक समय ऐसा भी था जब यहां नक्सली वारदातें चरम पर थी, जिसमें उन्होने मप्र के केबिनेट मंत्री बालाघाट जिले के लाडले नेता लिखीराम कावरे की हत्या कर दी थी। क्या एक समय ऐसा भी था जब सरकार के पास प्रस्ताव था कि बालाघाट को नक्सली जिला होने के तमगे से मुक्त कर दिया जाए और क्या एक समय ऐसा भी था जब लगभग १ दर्जन जिलों को नक्सल क्षेत्र घोषित कर दिया गया था।
मै आपसे यह सवाल इसलिये कर रहा हूं क्योकि जवाब आपके आस-पास ही है आप खुद ही इन सवालों के जवाबों से रूबरू हो सकते है। जहां आपको सुनाई पड़ेगा कि नक्सली समस्या को ”दिखाएÓÓ रखना कहीं किसी-किसी की आवश्यकता है। नक्सलवाद बना रहेगा तो भारी भरकम राशि का केन्द्र से आबंटन मप्र एवं जिले में आएगा। पुलिस वालों को नक्सली पकड़ा-धकड़ी या एनकाउंटर में जहां इनाम तो मिलेगा ही आऊट ऑफ टर्न प्रमोशन भी मिलेगा। बस फिर क्या नक्सल-पुलिस खेल चलता रहता है और जनता तमाशा देखती रहती है। कोई बोलता है नहीं, ‘पुलिस का डरÓ बहुत बड़ी चीज होती है, यमराज आंखों के सामने आ जाते हैं।
यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि जितनी भी नक्सली घटनाएं घटित होने की जानकारी दी जाती है, उसका कोई प्रत्यक्षदर्शी सिविलियन नहीं होता है। क्या हुआ यह सिर्फ पुलिस को या फिर उन तथा कथित नक्सलियों को ही पता होता है। मिडिया को तो इन नक्सली वारदातों के दौरान फटकने ही नहीं दिया जाता है। जब सब कुछ हो जाता है तो बकायदा एक प्रेस कांफ्रेंस करके घटना की जो स्टोरी बनाई जाती है वह प्रस्तुत कर दी जाती है। फिर वही बात की वास्तविकता तो पुलिस या तथाकथित नक्सली ही जानते है। पकड़े गए इन तथाकथित नक्सलियों से कभी प्रेस का सामना नहीं कराया जाता। हमें मानलेना पड़ता है कि जो पुलिस कह रही है वही सच है। लेकिन इसकी अलसियत की पोल न्यायिक प्रक्रिया में खुल जाती है। इसका प्रमाण है कि अब तक सैकड़ों तथाकथित नक्सलियों को पकड़कर पुलिस ने जेलों में बंद किया है किंतु सिर्फ एक वारदात जिसमें केबिनेट मंत्री स्व. लिखीराम कावरे की हत्या के आरोपियों को छोड़ दे, तो अभी तक अन्य किसी भी वारदातों के आरोपियों को सजा नहीं हो पाई है।
इस स्थिति में सवाल खड़ा होना लाज़मी है कि क्यों एक अपवाद छोड़कर हर मामले में कथित नक्सल आरोपी बिना सजा के बाहर आते रहे है। ऐसे में इन घटनाओं के आरोपियों को दबोचने में प्रशस्ति पाने वाले उन पुलिस अधिकारी कर्मचारियों को जो आर्थिक इनाम तथा आऊट ऑफ टर्न प्रमोशन दिया गया है वह सरकार ने वापस ले लेना चाहिए और यह चिंतन करना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? और जवाब यह है कि आर्थिक लाभ तथा आऊट ऑफ टर्न प्रमोशन पाने के चक्कर में फर्जी मुठभेड़ हो जाती है, जो कभी किसी ग्रामवासी को नजर नहीं आती। पुलिस पर अनेको बार आरोप लगे है कि भोले-भाले आदिवासियों को ‘तमगाÓ लगा दिया जाता है और उनकी कोई आवाज होती ही नहीं है।
एक वारदात का स्मरण हो आया है उसका वर्णन किया जाना प्रासंगिक है, पूर्व के वर्षों में एक बहुत बड़ा चर्चित नक्सली ”आजादÓÓ नाम का हुआ करता था जिसे पुलिस ने एनकाउंटर में मृत घोषित करके सरकार से सारे तमगे लेकर बहुत कुछ पा लिया था किंतु बाद में वही आजाद कुछ साल बाद जीवित पाया गया था।
अत: इन वारदातों पर आम नागरिकों का विश्वास बनाए रखना है तो जरूरी है कि ऐसे नियम बने जिसमें वारदात क्षेत्र की सीमा के ग्राम प्रधान के साथ कुछ अन्य जवाबदेह व्यक्तियों को मौका-ए-वारदात से रूबरू कराया जावे, जो हथियार आदि सामग्री मिलती है उनका ग्राम प्रधान की मौजूदगी में पंचनामा बनाया जावे, अन्यथा जनता जनार्दन इन घटनाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाती रहेगी और कहेगी कि ये घटनाएं आऊट ऑफ टर्न प्रमोशन एवं केन्द्र से आने वाली भारी भरकम राशि जिसके विषय में कहा जाता है कि इसका कोई हिसाब किताब नहीं देना होता के लिये घटित की जाती है।