अफगानिस्तान पर पूरी दुनिया की निगाह, 2 एक्सपर्ट्स के इंटरव्यू से समझिए इस समस्या का हर पहलू

0
A few members of the Taliban delegation head to attend the opening session of the peace talks between the Afghan government and the Taliban in Doha, Qatar, Saturday, Sept. 12, 2020. (AP Photo/Hussein Sayed)

अमेरिका का निकलना और तालिबान का सत्ता की ओर बढ़ना… अफगानिस्तान का नाम आते ही यही दो बिंदु हैं, जो हर व्यक्ति के दिमाग में आते हैं। मगर इन दोनों ही घटनाओं के पीछे कौन से कारण हैं, और आगे इस पूरे घटनाक्रम का क्या असर होगा? इन सवालों का जवाब हमने वैश्विक विशेषज्ञों से जानने की कोशिश की। अमेरिकी रणनीति और अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों के विशेषज्ञ से दैनिक भास्कर के रितेश शुक्ल ने विशेष बातचीत की। इन विशेषज्ञों के जवाबों से समझिए इस घटनाक्रम का हर पहलू…

बाइडेन का मास्टरस्ट्रोक है अफगानिस्तान; तुर्की, तालिबान और ताइवान तय करेंगे शक्ति संतुलन

दुनिया की पहली वैश्विक रिस्क एनालिसिस कंपनी यूरेशिया ग्रुप के संस्थापक ईयन ब्रेमर मानते हैं कि अफगानिस्तान से अमेरिका के निकलने के पीछे घरेलू राजनीतिक दबाव सबसे बड़ा कारण है। मगर इस सोची-समझी रणनीति का असर दूरगामी है। न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे पब्लिकेशन्स के लिए लिखने वाले ब्रेमर कहते हैं कि यह जो बाइडेन का ऐसा मास्टर स्ट्रोक साबित हो सकता है, जिसका असर चीन, रूस, ईरान और पाकिस्तान पर सीधे पड़ेगा। पढ़िए, ब्रेमर की भास्कर से खास बातचीत के प्रमुख अंश…

आर्थिक मंदी तो सुना था, ये भू-राजनीतिक मंदी क्या है?
जब नागरिक नेतृत्व पर भरोसा खोने लगते हैं, जिम्मेदार देश सिर्फ अपने हित देखने लगते हैं तो माना जाता है कि दुनिया भू-राजनीतिक मंदी में है। आज हम इसी मंदी में हैं और भविष्य इस पर निर्भर करेगा कि तुर्की, तालिबान और ताइवान पर वैश्विक ताकतें किस करवट बैठती हैं। अमेरिका का अफगानिस्तान से निकलना और तालिबान पर दूसरे देशों का रुख नए समीकरणों का प्रमाण है।

अमेरिका की नई रणनीति क्या है?
अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की तैनाती चुनावी मुद्दा बन चुका है, जिसे साधना बाइडेन की मजबूरी थी। रणनीति के नजरिये से देखें तो अमेरिकी खुफिया तंत्र में यह प्रश्न उठने लगा था कि अफगानिस्तान में हो रहे खर्च से अमेरिका को क्या लाभ हुआ। अमेरिका के निकलते ही रूस पर अफगानिस्तान-उज्बेकिस्तान-तुर्कमेनिस्तान-तजाकिस्तान से सीमा पर दबाव बढ़ जाएगा। चीन का बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट तो प्रभावित होगा ही, उसके शिन्जॉन्ग राज्य में आतंकवाद और अपराध बढ़ेगा।

अमेरिका का पुराना साथी पाकिस्तान, जो चीन की गोद में बैठा था, उसे भी अब अपनी पश्चिमी सीमा पर समय और संसाधन खर्च करने पड़ेंगे। रूस और पाकिस्तान का खर्च बढ़ने का सीधा मतलब है- चीन पर दबाव बढ़ना। बाइडेन का मानना है कि अमेरिका को चुनौती केवल चीन से मिल रही है। लिहाजा बाइडेन अपना सारा ध्यान पूर्वी एशिया यानी ताइवान और दक्षिण चीन सागर पर केंद्रित करना चाहते हैं। इस एक कदम से चीन, रूस, ईरान और पाक का सुरक्षा संतुलन तितर-बितर हो रहा है। बाइडेन का कदम मास्टरस्ट्रोक साबित हो सकता है।

तालिबान, तुर्की और ताइवान में ऐसी क्या खास बात है?
तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन ने भू-मध्य सागर और काला सागर को जोड़ने वाली बॉस्फोरस नहर के समानांतर इस्तांबुल में 45 किमी लंबी और 275 मीटर चौड़ी नहर पर इसी महीने काम शुरू कर दिया है। बॉस्फोरस नहर के जरिये व्यावसायिक जहाजों के अलावा केवल रूसी नौसेना गुजर सकती है। नई नहर से नाटो के सैन्य जहाज भी आ-जा सकेंगे। माना जा रहा है कि 50 हजार करोड़ की इस नहर पर चीन निवेश कर रहा है। यहां यूरोप, अमेरिका, तुर्की, रूस और चीन में नए समीकरण उभर रहे हैं। तालिबान के साथ भी इन्हीं ताकतों व अन्य देशों के तार जुड़े हैं। ताइवान तो चीन की दुखती रग है, जहां अमेरिका के साथ-साथ जापान, ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों के हित जुड़े हैं।

इन समीकरणों का भारत पर क्या असर पड़ सकता है?
भारत एक बड़ा बाजार है और रहेगा। लेकिन अगर भारत बड़ी ताकत बनना चाहता है तो उसे अपनी जनता, सेना और टेक्नोलॉजी को कई गुना सशक्त करना होगा। आने वाले समय में युद्ध साइबर और आर्टिफिशियल जनरल इंटेलिजेंस के मैदान में होगा। इसमें अमेरिका और चीन के अलावा तीसरा कोई खिलाड़ी ही नहीं है। भारत को इस क्षेत्र में समय, मानव संसाधन व पूंजी झोंकनी होगी। तभी भारत जिस करवट बैठेगा, उसका पलड़ा भारी हो जाएगा।

अमेरिका रातोरात निकला, ये उसका हित था; मगर अफगानिस्तान गृहयुद्ध में प्रवेश कर गया

फैज जलांद

फैज जलांद

काबुल यूनिवर्सिटी के लोक प्रशासन विभाग के प्रोफेसर व डेमोक्रेसी, पीस और डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर फैज जलांद का कहना है कि अमेरिका ने अपना हित देख रातोरात अफगानिस्तान से निकलना सही समझा। अब स्थिति ये है कि तालिबान को अफगानिस्तान की शहरी जनता बर्दाश्त नहीं कर सकती। पड़ोसी मुल्क आइसिल के सत्ता में आने का खतरा नहीं उठा सकते। ऐसे में यह देश गृहयुद्ध में प्रवेश कर चुका है। पढ़िए, भास्कर के साथ खास बातचीत के प्रमुख अंश…

तालिबान का 85% अफगानिस्तान पर कब्जे का दावा सच है?
अगर जमीन के नजरिए से देखें तो आंकड़े की पुष्टि कैसे होगी। अगर जनता के लिहाज से देखें तो शहरी क्षेत्र अभी भी सरकार के नियंत्रण में है। ये सच है कि तालिबान तेजी से देश में फैल रहा है। सरकार को अमेरिकी सैनिकों के अचानक चले जाने से दिक्कत हो रही है। अगर जनता को देश माना जाए तो तालिबान के सामने चुनौती बड़ी है। क्योंकि महिलाएं और बच्चे तालिबान के निजाम की आशंका से खासे डरे हुए हैं। वे तालिबान से बचने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।

सरकारी सैनिकों की संख्या तालिबानी लड़ाकों से करीब 3-4 गुना ज्यादा है फिर भी वे इतने असहाय क्यों दिख रहे हैं?
अमेरिका और तालिबान के बीच जो भी समझौता हुआ हो। लेकिन सच्चाई तो यह है कि अमेरिका बिना शर्त रखे और बिना बताए रात के अंधेरे में उड़ गया। अफगानी सैनिक खुद को अकेला पा रहे हैं। ये उनके मनोबल के लिए अच्छा नहीं था। सरकार सारे प्रोफेशनल सैन्य जनरलों को रिटायर कर चुकी है। उनके बदले नए चेहरे लाए गए थे। जवान इस बदलाव से खुश नहीं थे। तालिबान की संख्या 60 से 85 हजार के बीच है। लेकिन वे अमेरिका के जाने को अपनी जीत बता रहे हैं। वहीं तीन लाख से ज्यादा अफगानी सैनिक खुद को दिशाहीन पा रहे हैं।

तो क्या आप दोष अमेरिका पर मढ़ना चाह रहे हैं?
नहीं। अमेरिका को दोष देने से कोई लाभ नहीं होगा। जो बाइडेन ने वो किया, जो अमेरिका के हित में है। यथार्थ ये है कि हम गृहयुद्ध के बीच में हैं। आज किसी भी पक्ष का किसी दूसरे पर विश्वास नहीं है। एक ही व्यक्ति तालिबान के सामने तालिबानी हो सकता है और सरकार के सामने तालिबान विरोधी हो सकता है। आम जनता बीच में फंसी है। उसे जिससे सुरक्षा मिल जाए, वो ले लेगी।

पड़ोसी देश तालिबान से बात के लिए राजी कैसे हो गए?
उनके पास चारा क्या है। तालिबान नीतिगत तौर पर अफगानिस्तान के बाहर दखल नहीं देना चाहता। जबकि आइसिल अफगानिस्तान के साथ सटे देशों के हिस्से तोड़कर खोरोसान राष्ट्र बनाना चाहता है। लिहाजा पड़ोसी देशों को लगता है कि तालिबान बेहतर विकल्प है। मानवाधिकार अभी किसी की प्राथमिकता नहीं है।

तालिबान ने कहा है कि चीन उसका दोस्त है…?
अफगानिस्तान के लड़ाकों से दोस्ती के बाद सोवियत संघ टूटकर रूस रह गया। अमेरिका दिवालिया होने की कगार पर है। चीन को भी दोस्ती का जरूर मौका मिलना चाहिए।

क्या तालिबान आइसिल से लड़ पाएगा?
सवाल ये है कि क्या तालिबान सरकार बना लेने के बाद भी अफीम-हेरोइन से पैसे बना पाएगा। क्या वो आइसिल को इस व्यापार में जमने से रोक पाएगा। दुनिया का 90% अफीम अफगानिस्तान में उगाया जाता है। इसके सबसे बड़े हिस्से पर तालिबान का कब्जा रहा है और यही उसकी कमाई का स्रोत भी है। मगर इस व्यापार के फलने-फूलने के लिए जरूरी है कि यह इलाका अशांत रहे। मुझे नहीं पता कि तालिबान सरकार में आने के बाद इस क्षेत्र में अमन ला पाएगा या नहीं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here