नई दिल्ली: बीते साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने POCSO के एक मामले को लेकर कलकत्ता हाईकोर्ट को जमकर फटकार लगाई थी। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मामलों में हाई कोर्ट क्यों ‘समझौते’ की ओर झुकते हैं? सुप्रीम कोर्ट ने सहमति से यौन संबंध को अपराध से मुक्त करने का सुझाव देने पर कलकत्ता हाईकोर्ट को फटकार लगाई थी। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हाईकोअर् का कर्तव्य साक्ष्य के आधार पर यह पता लगाना था कि क्या पोक्सो अधिनियम की धारा 6 और आईपीसी की धारा 376 के तहत अपराध किए गए थे। आईपीसी की धारा 375 में अठारह वर्ष से कम उम्र की महिला के साथ उसकी सहमति से या उसके बिना संबंध बनाना बलात्कार का अपराध बनता है। इसलिए, क्या ऐसा अपराध किसी रोमांटिक रिश्ते से पैदा होता है, यह अप्रासंगिक है। एक ऐसा कृत्य जो पॉक्सो अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध है, उसे रोमांटिक संबंध कैसे कहा जा सकता है? हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि पीड़िता के प्राइवेट पार्ट्स को छूना और पायजामी की डोरी तोड़ने को रेप या रेप की कोशिश के मामले में नहीं गिना जा सकता है। उनकी इस टिप्पणी को लेकर सवाल उठ रहे हैं। लोग सोशल मीडिया से इस बारे में सुप्रीम कोर्ट से एक्शन की भी मांग कर रहे हैं। लीगल एक्सपर्ट से समझते हैं कि क्या है पूरा मामला और क्या जजों को ऐसी टिप्पणी से बचना चाहिए था?
क्या कहा था इलाहाबाद हाईकोर्ट ने, जिस पर हुआ विवाद
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि पीड़िता के प्राइवेट पार्ट्स को छूना और पायजामी की डोरी तोड़ने को बलात्कार या बलात्कार की कोशिश के मामले में नहीं गिना जा सकता है। हालांकि, कोर्ट ने ये कहा कि ये मामला गंभीर यौन हमले के तहत आता है। कोर्ट ने इसे अपराध की तैयारी और वास्तविक प्रयास के बीच अंतर करार दिया है। यह साबित करना होगा कि मामला तैयारी से आगे बढ़ चुका था। यह मामला उत्तर प्रदेश के कासगंज इलाके में 2021 का है, जब कुछ लोगों ने नाबालिग लड़की के साथ जबरदस्ती की थी।
क्या ये पीड़िता के साथ अन्याय का रास्ता खोलता है
सोशल मीडिया पर लोग इस फैसले को लेकर काफी नाराज हैं। एक यूजर ने लिखा-लोग पूछ रहे हैं कि क्या इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला यौन अपराधियों को छूट देने और पीड़ितों के साथ अन्याय करने का रास्ता नहीं खोलता? जब सुप्रीम कोर्ट पहले ही तय कर चुका है कि बच्चों के अंगों को छूना भी ‘यौन हमला’ माना जाएगा, तो इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस मामले में इतनी लचर और असंवेदनशील व्याख्या क्यों दी? क्या इस फैसले से यह संकेत नहीं मिलता कि नाबालिग लड़कियों के साथ यौन उत्पीड़न के कुछ कृत्य गंभीर अपराध नहीं माने जाएंगे, जिससे अपराधियों को और बढ़ावा मिलेगा? सीनियर एडवोकेट इंदिरा जयसिंह ने सुप्रीम कोर्ट से इस मामले में स्वतः संज्ञान लेने की मांग की। उन्होंने कहा-सुप्रीम कोर्ट ने बहुत कम मामलों में जजों की खिंचाई की है।