(उमेश बागरेचा)
नगर पालिका परिषद बालाघाट में एक बार फिर भाजपा का अध्यक्ष आसीन होगा। इसके पूर्व वर्ष 1994 में कांग्रेस की ओर से भीम फूलसूंघे अध्यक्ष बने थे, उनका कार्यकाल 1999 में समाप्त होने के पश्चात अब बीते 23 साल में सम्पन्न हुए विविध चुनावों में एक बार भी कांग्रेस अपना अध्यक्ष नहीं बिठा पाई। वर्तमान चुनाव के पूर्व 4 बार हुए चुनाव में अध्यक्ष का चुनाव पार्षदों के माध्यम से न होकर सीधे मतदाता से चुनाव हुए है, मे सिर्फ एक बार जब श्रीमती शांति कोचर प्रत्याशी थीं उसी वक्त कांग्रेस की जमानत बची थी, बाकी सभी चुनावों में अध्यक्ष पद के प्रत्याशियों की जमानत जब्त होती रही है, इसके बाद भी कांग्रेस पार्टी ने कोई सबक नहीं लिया है। ऐसा शायद इसलिए भी है कि कांग्रेस से चुने जाने वाले पार्षदों में से अधिकांश पूरे कार्यकाल तक तत्कालीन निर्दलीय अध्यक्ष श्रीमती मुंजारे तथा उनके बाद भाजपा से अध्यक्ष क्रमश: रमेश रंगलानी तथा अनिल धुवारे से मैनेज होते रहे। क्योंकि इन पार्षदों को नगरपालिका में निर्माण के ठेके लेने रहते हैं, इसके अलावा एक नहीं अनेक रिश्तेदारों को नगरपालिका में संविदा पर नौकरी में भी लगवाना पड़ता है। ऐसे अनेक स्वार्थों के चलते पूरे पांच साल बीत जाते हैं, मगर कहीं से भी नहीं लगता कि परिषद में विपक्ष के पार्षद हैं। पिछले कुछ सालों से शहर के राजनैतिक गलियारों में यह आम चर्चा है कि अधिकांश पार्षद, सिविल लाईन स्थित बंगले से प्रेरणा लेते रहे हैं। पिछले चुनावों में भी हमने देखा है कि कांग्रेस प्रत्याशी को निपटाने के लिए शहर में स्वयं को असली कांग्रेसी कहने वाले तथाकथित नेतागण जो उपर के नेताओं की पसंद के हैं द्वारा अध्यक्ष पद के लिए कुछ अर्धकांग्रेसियों को बागी के तौर पर मैदान में उतारकर इनका चुनावी खर्च बंगले से मैनेज करा लेते हैं और थोड़ा अपने लिए भी बचा लेते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शहर में जो कतिपय लोग अपने को कांग्रेस का बड़ा नेता मानते हैं और जिन्हें उपर के नेताओं का आशीर्वाद प्राप्त है वे अपने-अपने वार्डो से पार्षद प्रत्याशी ही नहीं जिता पाते हैं, लेकिन विभिन्न चुनाव में टिकिट के दावेदार जरूर बन जाते हैं। अभी-अभी संपन्न हुए चुनाव के दौरान शहर में आम चर्चा थी कि इस बार जरूर कांग्रेस का अध्यक्ष आसीन होगा तथा माना जा रहा था कि संख्या में भाजपा से ज्यादा कांग्रेस के पार्षद जीतेंगे, लेकिन जब 20 जुलाई को नतीजे आए तो कांग्रेस के मात्र 11 पार्षद जीते, भाजपा के 18 तथा निर्दलीय 4 जीते। एक बार फिर नगर कांग्रेसमय नहीं हो सका । कांग्रेस के बहुमत के लायक पार्षद नहीं चुने जाने के पीछे राजनैतिक गलियारों में जो चर्चा चल रही है उसके अनुसार गुटों में विभक्त कांग्रेसी नेताओं ने एक-दूसरे के समर्थक पार्षदों को निपटा दिया। इसमें दोष जितना इनका है उससे ज्यादा जिला संगठन का है और उससे कहीं ज्यादा प्रदेश नेतृत्व का है, जहां असली और नकली की पहचान नहीं हो पा रही है। जो सबसे ज्यादा भोपाल स्थित बंगले पर चरण वंदना करेगा वो ही सबसे बड़ा असली कांग्रेसी कहलायेगा। इसलिए जिले का कांग्रेस संगठन बदहाल है। पक्ष में कहने के लिए कांग्रेसी 6 में से 3 विधानसभा सीट जीतने को कांग्रेस के अच्छे दिन कह सकते हैं, लेकिन वे भूल जाते हंै कि ये सीटें प्रत्याशियों की अपनी छवि तथा भाजपा के पास उस स्तर का सशक्त जनता का पसंददीदा प्रत्याशी ना होना प्रमुख है। स्मरण रहे कि गत विधान सभा चुनाव में प्रदेश एवं राष्ट्रीय स्तर का कोई कांग्रेसी नेता प्रचार के लिए बालाघाट नहीं आया था उस स्थिति में भी 3 सीटे कांग्रेस ने जीती लेकिन यह जीत कांग्रेस की कम प्रत्याशी की ज्यादा थी। आज भी ऐसे हालात हैं कि 2023 के होने वाले आमचुनाव में जिले की 6 में से सभी 6 सीटे कांग्रेस जीत सकती है बशर्ते प्रदेश नेतृत्व जिले के संगठन को चुस्त-दुरुस्त करे तथा चापलूस और गैर चापलूस के अंतर को महसूस करे।