सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एनवी रमण ने राजनीति, मीडिया से लेकर जजों की सुरक्षा तक पर खरी-खरी सुनाई है। उन्होंने कहा कि आज जजों की सुरक्षा एक बड़ा मामला है। न्यायाधीशों को वैसी सुरक्षा नहीं मिलती है जैसी नेताओं और नौकरशाहों को मिल रही है। उन्होंने हाल में जजों पर हमलों की बढ़ती वारदातों का जिक्र कर कहा कि आज जुडिशरी भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार नहीं है। अगर इस पर आंच आती हैं, तब लोकतंत्र पर आंच आएगी। रमण ने मीडिया खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया से जिम्मेदारी से व्यवहार करने की अपील की है।
जजों की सुरक्षा का मामला उठाते हुए सीजेआई ने कहा कि राजनेताओं, नौकरशाहों, पुलिस अधिकारियों और अन्य जन प्रतिनिधियों को अक्सर उनकी नौकरी की संवेदनशीलता के कारण रिटायरमेंट के बाद भी सुरक्षा दी जाती है। विडंबना यह है कि न्यायाधीशों वैसी सुरक्षा नहीं मिलती है। चीफ जस्टिस ने कहा कि इन दिनों हम न्यायाधीशों पर हमलों की बढ़ती वारदातें देख रहे हैं। रिटायरमेंट के बाद न्यायाधीशों को उसी समाज के लोगों में रहना होता है जिनमें से कई को वे दोषी ठहरा चुके होते हैं। बिना किसी सुरक्षा या सुरक्षा के आश्वासन के उन्हें ऐसा करना पड़ता है। अगर हम फलता-फूलता लोकतंत्र चाहते हैं, तब जुडिशरी को मजबूत करना होगा। अपने जजों को सशक्त करना होगा।
उन्होंने कहा, क्या आप कल्पना कर सकते हैं, एक जज जिसने दशकों बेंच पर सेवाएं दी हों, क्रिमिनल्स को सलाखों के पीछे भेजा हो, उसके रिटायर होते ही सभी तरह की सुरक्षा वापस ले ली जाती हैं। जजों को बिना किसी सुरक्षा और आश्वासन के उसी समाज के लोगों के बीच रहना पड़ता है, जिसमें से कई को वह दोषी ठहरा चुके होते हैं। रमण ने कहा कि कई बार हमने मीडिया को कंगारू कोर्ट चलाते हुए देखा है। कई बार अनुभवी जजों को भी फैसला करने में मुश्किल पेश आती है। मीडिया में पक्षपातपूर्ण विचार लोगों को प्रभावित करते हैं। इससे लोकतंत्र कमजोर पड़ता है। सिस्टम को नुकसान होता है। इस प्रक्रिया में जस्टिस डिलीवरी पर प्रतिकूल असर पड़ता है। अपनी जिम्मेदारी का उल्लंघन कर मीडिया लोकतंत्र को पीछे ले जाती है। प्रिंट मीडिया में तो फिर भी कुछ हद तक जवाबदेही दिखती है। इसके उलट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में शून्य जवाबदेही दिखाई देती है। उससे भी खराब हालात सोशल मीडिया के हैं।