“हरि रूठे गुरु ठौर है गुरु रूठे नहीं तो नहीं ठौर” – मुनिश्री संस्कार सागर महाराज

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दिगंबर जैन संत मुनिश्री संस्कार सागर जी महाराज छुललक श्री विश्व मार्दव सागर जी महाराज के सानिध्य में ब्रहमचारी शोभित भैयया जी के निर्देशन मे श्रद्धालुओं ने प्रातः श्री जी के अभिषेक शांति धारा कर पूजा अर्चना धार्मिक अनुष्ठान संपन्न किया। तत्पश्चात धर्म सभा में मुनिश्री संस्कार सागर जी महाराज ने श्रावक श्राविकाओ को संबोधित करते हुए गुरू की महिमा पर विस्तार से बताते हुए कहा, कि एक बार अगर तुम्हारा परमात्मा तुमसे रूठ जाए तो गुरु की शरण में आ जाओगे तो परमात्मा को मना लोगो। अगर गुरू रूठ गयें अर्थात माध्यसथ हो गए तो अब कहां जाओगे इसलिए कहां है “हरि रूठे गुरु ठौर है गुरु रूठे नहीं तो नहीं ठौर” ।
मुनिश्री ने गुरु ओर शिष्य को महिमा को विस्तार से बताते हुए कहा, कि गुरु ही होते हैं जो हमें गोविंद अर्थात भगवान का ज्ञान कराते हैं। और स्व-पर का भेद बतलाते हैं। यदि वही हम से रूठ गए अर्थात हम उनकी नजरों से गिर गए तो अब इस संसार मे समीचीन बोद्ध कौन कराएगा? समीचीन बोद्ध के अभाव में मिथयातव के प्रभाव में इस संसार से हमें अब को बचाएगा। इसलिए गुरु से द्रोह स्वप्न में भी नहीं करना चाहिए ,गुरु से द्रोह केवल संकलेशता को उतपन्न करता है। ओर संक्रलेषित व्यक्ति कभी भी अपना उत्थान नहीं कर सकता उसका पतन उसी समय से प्रारंभ हो जाता है जिस समय वह गुरु की नजरों से गिर गया था।
किंतु गुरु तो गुरु होते हैं वह कभी अपने शिष्य का पतन नहीं चाहते और कभी शिष्यों को ठेस अथवा दुःख पहुंचाने की भावना नहीं रखते अपितु वह तो मां से अधिक दुख सहकर शिष्य को सुखी होने का आशीष देते हैं । यही गुरु के ह्रदय की पवित्रता विशालता है पर धिक्कार है उन शिष्यों को जो गुरु को ही अश्रधदा की नजरों से देखने लगते हैं। उनका नाम लेना या मान देना भूल जाते हैं फिर भी गुरु शिष्य को नहीं भूलते वह उनके कष्ट में दुखी तथा सुख में सुखी हो जाते हैं वे गुरुत्व ओर प्रभुत्व के अवतारी होते हैं।
जो शिष्य गुरु की उंगली पकड़कर चलते हैं उनका उत्थान हो या ना हो यह भी संभव है , लेकिन जो शिष्य गुरु को ही अपना हाथ पकड़ा देते हैं वह शिष्य कभी भी इस संसार में नहीं भटक सकता क्योंकि शिष्य तो कभी किसी भी लोभ लालच के प्रभाव में आकर गुरु की उंगली को छोड़ सकता है लेकिन गुरु कभी भी किसी भी परिस्थिति में शिष्य का हाथ नहीं छोड़ता क्योंकि वह गुरु है ओर गुरु शिष्य का पतन कभी नहीं चाहते ,इसलिए ऐसे भव सागर से पार लगाने वाले परम उपकारी गुरू से स्वप्न में भी विद्रोह नहीं करना चाहिए।दुनिया हमसे रूठ जाए लेकिन गुरु हमसे कभी भी नहीं रूठने चाहिए क्योंकि गुरु का द्वार हमारे उद्धार का द्वार है वह संसार के सारे द्वार बंद मिलते हैं तब एक द्वार खुला मिलता है वह है “गुरु का द्वार”

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