गठिया ऑटो-इम्युन डिसीज़ है इसलिए इसकी दवाइयों से मरीजों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। कोविड वैक्सीन का इन पर काफी कम असर होता है। यही कारण है कि इन मरीजों को बूस्टर डोज लेना ज्यादा जरुरी होता है। जिन मरीजों को कोविड नहीं हुआ है वे 6 महीने और जिन्हें हुआ है वे 9 महीने के अंतराल के बाद बूस्टर डोज़ जरूर लगवाएं।
यह बात फैकल्टी पद्मनाभ शेनॉय (कोचिन) ने ब्रिलियंट कन्वेंशन सेंटर में आयोजित 37वीं IRACON-2022 (Annual Conference of Indian Rheumatology Association) के समापन सत्र में अपने सेशन में कही। उन्होंने बताया कि भारत में गठिया रोग के तीन करोड़ मरीज हैं। इनके लिए यूएस, यूके कनाडा आदि में गाइड लाइन है। यहां भी सरकार को गाइन लाइन बनानी चाहिए। गठिया के मरीज जो इम्युनिसीफोसी मेडिसिन लेते हैं उससे उनकी इम्युनिटी कम हो जाती है। इसके चलते कोरोना का वैक्सीन जितना आम लोगों में काम करता है, उतना इनमें काम नहीं करता है। उनका इम्युन रिस्पांस काम नहीं करता है व उनमें इम्युनिटी कम काम करती है। इसके चलते वैक्सीन का असर कम होता है।
उन्होंने कहा गठिया के मरीजों के कोविड में गंभीर होने की संभावना ज्यादा होती है। दूसरी ओर वैक्सीन कम काम करता है। इन दोनों को ध्यान में रखते हुए देखना है कि क्या करना है। इसमें अभी बहुत कम स्टडी व ट्रायल हुआ है। अभी तक जितने ट्रायल हुए हैं वे सामान्य लोगों में हुए हैं। इसके चलते गठिया पर अलग से स्टडी की गई। इसमें यह बात सामने आई कि इसमें कोविशील्ड ज्यादा का काम करता है जबकि कोवैक्सीन कम काम करता है। इसका एक रिसर्च भी प्रकाशित हुआ है। यह भी बात सामने में आई कि बूस्टर डोज कब लगाना है। जिन्हें गठिया या आर्थराइटिस नहीं है उन्हें तीन से छह महीने में ले लगाना चाहिए। जिन लोगों को कोविड होकर रिकवर हुआ है उन्हें नौ महीने बाद लेना है। जो आखिरी डोज लिया है, उसके नौ महीने बाद लेना है नहीं तो काम नहीं करेगा।
डिप्रेशन, स्ट्रेस और एंक्जाइटी भी कम
एम्स दिल्ली की रूमेटोलॉजी विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ. उमा कुमार कहती है कि हमने एक रिसर्च में आधे मरीजों को सिर्फ दवाई दी और आधे मरीजों को दवाइयों के साथ ही योग भी कराया गया। जिन मरीजों ने दवाइयों के साथ ही योग भी किया उन मरीजों की बीमारी ज्यादा जल्दी ठीक हो रही थी और उन्हें जोड़ों में जकड़न और सूजन से भी ज्यादा राहत मिली। इतना ही नहीं इन मरीजों में डिप्रेशन, स्ट्रेस और एंजाइटी भी कम हुई इसलिए हम रूमेटोलॉजिकल बीमारियों के मरीजों को दवाइयों के साथ ही योग और ध्यान भी करने की सलाह देते हैं। हमें मॉडर्न मेडिसिन के साथ हमारे देश की विरासत को भी रूमेटोलॉजिकल बीमारियों के इलाज के लिए प्रचारित करना चाहिए।
रूमेटोलॉजिकल डिसीज़ के खतरे को 30 गुना बढ़ा सकता है वायु प्रदुषण
फैकल्टी लॉर्स क्लैरेस्कोग (स्वीडन) ने अपने रिसर्च प्रेजेंटेशन में बताया कि यदि आपमें कुछ खास रिस्क जींस है, जो रूमेटोलॉजिकल डिसीज़ के कारक होते हैं और आप प्रदूषित वातावरण में रहने के साथ ही स्मोकिंग भी करते हैं तो आपको अन्य लोगों की तुलना में रूमेटोलॉजिकल बीमारियां होने का खतरा 20 से 30 गुना तक बढ़ जाता है। उन्होंने बताया कि एम्स दिल्ली की रूमेटोलॉजी विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ उमा कुमार द्वारा भी इस तरह का शोध किया गया है, जिसमें पाया गया कि वायु प्रदुषण के कारण दिल्ली में रहने वाले लोगों को रूमेटोलॉजिकल डिसीज़ होने का खतरा 18 प्रतिशत तक अधिक है।
रविवार को हुए कॉन्फ्रेंस के समापन सत्र के मुख्य अतिथि एमजीएम मेडिकल कॉलेज के डीन डॉ. संजय दीक्षित थे। कॉन्फ्रेंस के ऑर्गेनाइजिंग सेक्रेटरी डॉ. आशीष बाडिका ने बताया कि इंडियन रूमेटोलॉजिकल एसोसिएशन का यह 37वां सत्र बहुत ही सफल रहा है। इसमें 1200 से ज्यादा डेलीगेट्स ने हिस्सा लिया और 20 से ज्यादा विदेश वैज्ञानिक भी थे। कॉन्फ्रेंस के दौरान 175 वैज्ञानिक सत्र और 18 वर्कशॉप हुई। कॉन्फ्रेंस के ऑर्गेनाइजिंग चेयरपर्सन डॉ. वीपी पांडे ने बताया कि इस कॉन्फ्रेंस की खासियत यह थी कि इसमें गठिया के इलाज को किफायती बनाने पर विशेष ज़ोर दिया गया। इसके तहत इलाज की नई तकनीकों और दवाइयों से जुड़े रिसर्च भी प्रेजेंट किए गए। गठिया के मरीजों को सही समय पर पहचानने के लिए 500 से ज्यादा जनरल फिजिशियन्स को ट्रेनिंग भी दी गई।