वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआइआर) के भोपाल स्थित प्रगत पदार्थ प्रक्रम अनुसंधान संस्थान (एम्प्री) ने देश में पहली बार तीन डी मॉडल वाले इंप्लांट (हड्डी को जोड़ने के लिए विकल्प के तौर पर धातु से बनी रॉड, प्लेट या अन्य संरचना) बनाने की तकनीक विकसित की है। अब स्टील या टाइटेनियम के साथ सिर्फ एक फीसद कार्बन आधारित धातु ग्रैफीन मिलाकर इंप्लांट को 40 फीसद तक ज्यादा मजबूत बनाया जा सकेगा। यह इंप्लांट बिल्कुल हड्डी की तरह कार्य करेगा। अभी स्टील या टाइटेनियम से इंप्लांट बनाए जाते हैं। मजबूती बढ़ने का फायदा यह होगा कि इंप्लांट हल्के बनाए जा सकेंगे। शरीर की किसी भी हड्डी को जोड़ने में इसका उपयोग हो सकेगा। ग्रैफीन ज्यादा महंगी धातु नहीं है, इसलिए कीमत में भी कोई अंतर नहीं आएगा। इंप्लांट के साथ-साथ सर्जिकल उपकरण भी इसी तरह से बनाए जा सकेंगे। चिकित्सा के क्षेत्र में इस तकनीक के उपयोग को लेकर एम्प्री और एम्स के बीच शनिवार को एक एमओयू भी होने जा रहा है।
एम्प्री के प्रधान विज्ञानी डॉ. एन सतीश ने बताया कि बैक्टीरिया, वायरस और अन्य जीवाणुओं के लिए ग्रैफीन ब्लेड की तरह काम करता है। यह जीवाणु की ऊपरी दीवार को काट देता है, जिससे उसे ऑक्सीजन नहीं मिल पाती और वह मर जाते हैंं। लिहाजा सर्जिकल उपकरण या इंप्लांट से संक्रमण का खतरा भी नहीं रहेगा। डॉ. एन सतीश ने बताया देश में कहीं भी इस तकनीक से इंप्लांट नहीं बनाए जा रहे हैं। दुनिया में अमेरिका और चीन ने तकनीक तो विकसित की है, पर व्यावसायिक उपयोग वहां भी अभी शुरू नहीं हुआ है। इस धातु की खोज 2004 में हुई थी। खोज करने वाले वैज्ञानिक को 2010 में नोबल पुरस्कार मिला। इसके व्यावसायिक उपयोग शुरू करने के प्रयास दुनिया भर में हो रहे हैं।
इतना बेहतर है ग्रैफीन
– स्टील की मजबूती 1.3 गीगापास्कल्स होती है, जबकि ग्रैफीन की 130 गीगापास्कल है। यानी 130 गुना से ज्यादा मजबूत है।
– ऊष्मा की चालकता (थर्मोकंडिक्टिविटी) तांबे से 200 गुना ज्यादा है। एक फीसद ग्रैफीन मिलाकर इंप्लांट बनाए जाएंगे तो चालकता 40 फीसद तक बेहतर हो जाएगी। चालकता से मतलब है कि तापमान में बदलाव नहीं आएगा।
यह होगा फायदा
– मजबूत इंप्लांट ज्यादा दिनों तक चलेगा। उम्र 40 फीसद बढ़ जाएगी।
– हल्का होने से मरीज को असहज भी नहीं लगेगा।
– अभी आने वाले खर्च में ही यह काम हो जाएगा।
2015 से चल रही थी रिसर्च
ग्रैफीन आधारित 3 डी मॉडल बनाने के लिए एम्प्री में यहां के निदेशक डॉ. अवनीश कुमार श्रीवास्तव के मार्गदर्शन में शोध चल रहा था। नीदरलैंड के जर्नल ‘मटेरियल्स टुडे केमेस्ट्री” में एम्प्री की इस तकनीक पर शोध पत्र प्रकाशित हो चुका है। इसे एडिटिव मैनूफैक्चरिंग कहा जाता है। यह 3 डी प्रिंटिंग से आगे की तकनीक है।
तकनीक विकसित करने के बाद अब इसके व्यावसायिक उपयोग के लिए कंपनियों की तलाश की जा रही है। कंपनी मिलने के बाद पेटेंट के लिए भी जल्द आवेदन किया जाएगा। फिर ऐसा करने वाला भारत दुनिया का पहला देश होगा। – डॉ. एन सतीश, प्रधान विज्ञानी, एम्प्री