कजाकिस्तान में शंघाई सहयोग संगठन की मीटिंग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं गए हैं। भारत का प्रतिनिधित्व विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर करेंगे। एक्सपर्ट्स का कहना है कि भारत इससे अपनी दूरी बना रहा है, क्योंकि यह ग्रुप लगातार पश्चिम विरोधी होता जा रहा है। एससीओ को लेकर भारत का संदेह पिछले साल दिखा था। तब एससीओ का अध्यक्ष भारत था। लेकिन इसने व्यक्तिगत रूप से बैठक कराने की जगह ऑनलाइन मीटिंग कराने का फैसला किया। अब पीएम मोदी ने अस्ताना में होने वाली इस मीटिंग में न जाने का फैसला किया है। हालांकि बताया जा रहा है कि पार्लियामेंट के पहले सेशन के कारण वह इसमें नहीं गए हैं।
जियोपॉलिटिकल एक्सपर्ट ब्रह्मा चेलानी ने एक लेख में इसके बारे में बताया। उन्होंने कहा कि भारत की बेचैनी चीन को लेकर है। क्योंकि एससीओ में लगातार चीन का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। भारत को छोड़कर एससीओ के सभी सदस्य चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में हिस्सा हैं। एससीओ के नौ सदस्य देशों में भारत को एकमात्र पूर्ण लोकतंत्र वाले देश के रूप में कहा जा सकता है। साल 2001 में चीन, रूस, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान के नेताओं ने मिलकर इसे शंघाई में लॉन्च किया था। चीन ने इस समूह के विकास और विस्तार का नेतृत्व किया।
भारत के साथ पाकिस्तान को किया शामिल
चीन हमेशा भारत के कट्टर दुश्म पाकिस्तान को साथ लेकर चलता है। भारत को 48 देशों के परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में शामिल करने से चीन ने रोक दिया था, क्योंकि वह चाहता है कि पाकिस्तान इसमें शामिल हो। लेकिन 2017 में जब भारत एससीओ का मेंबर बना तो चीन पाकिस्तान को भी इसमें खींच लाया। चीन एससीओ को जी-7 देशों के ग्रुप की तरह बनाना चाहता है। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि मोदी सरकार ने इसमें शामिल होने पर सहमति क्यों दी?
भारत क्यों हुआ शामिल?
तेजी से बदल रही जियोपॉलिटिक्स के युग में भारत नहीं चाहता की वह किसी एक गुट का हिस्सा बनकर रह जाए। एससीओ में शामिल होने को भारत एक बैलेंस बनाने के तौर पर देखता है। इसके अलावा एससीओ एकमात्र बहुपक्षीय मंच है जो भारत को मध्य एशिया से जोड़ सकता है। एक पुरानी कहावत है कि दुश्मनों को अपने दोस्तों से ज्यादा करीब रखो। भारत ने इसी कहावत के आधार पर एससीओ में हिस्सा लिया। एक्सपर्ट्स मानते हैं कि चीन और पाकिस्तान का होना किसी भी ग्रुप में न शामिल होने का कारण नहीं होना चाहिए। हालांकि सात साल बाद यह साफ तौर पर दिख रहा है कि एससीओ का भारतीय विदेश नीति के लिए महत्व कम हो गया है।










































