पिछड़े वर्ग के अंदर पिछड़ गई जातियों का पता लगाने के लिए अक्टूबर 2017 में गठित रोहिणी आयोग के विस्तारित कार्यकाल को एक बार फिर बढ़ा दिया गया। उसका कार्यकाल इसी 31 जनवरी को खत्म हो रहा था। इस आयोग के कार्यकाल को बार-बार बढ़ाए जाने से उन वर्गों का निराश होना स्वाभाविक है, जो आरक्षण के भीतर आरक्षण को अपने लिए लाभदायक मान रहे हैं। ध्यान रहे कि सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ ने भी आरक्षण के भीतर आरक्षण को सही ठहराया है। उसका कहना था कि आरक्षण का लाभ सभी तक समान रूप से पहुंचाने के लिए राज्य सरकारें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का वर्गीकरण कर सकती हैं। उसके अनुसार बदलती सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखे बगैर सामाजिक बदलाव के उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। उसने यह भी कहा था कि राज्य आरक्षण देते समय अनुच्छेद 14, 15 और 16 की अवधारणा के आधार पर सूची में दी गई अनुसूचित जातियों में तर्कसंगत उप वर्गीकरण भी कर सकते हैं। दरअसल अनुसूचित जातियों में कुछ अभी भी बहुत पिछड़ी हुई हैं, जबकि कुछ जातियां बहुत आगे बढ़ गई हैं। कई राज्यों ने इसके लिए विशेष कोटा लागू कर इस समस्या का समाधान करने की कोशिश की है। आंध्र प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु और बिहार ने पिछड़े दलितों के लिए कोटा के अंदर कोटा दिया है। बिहार में नीतीश सरकार द्वारा महादलित आयोग बनाकर कोटा के अलावा कई अन्य सुविधाओं की भी घोषणा की गई है। आंध्र प्रदेश में भी जस्टिस रामचंद्र राजू की सिफारिशों के बाद विधानसभा से कोटे के अंदर वर्गीकरण का प्रस्ताव पास कर लगभग 57 अति दलित जातियों को अतिरिक्त सुविधा मुहैया कराई गई है। तमिलनाडु में जस्टिस एमएस जनारथनम रिपोर्ट के तहत अरुण घटियार जाति समूह को अलग से तीन प्रतिशत की आरक्षण सुविधा प्राप्त है।