
जंगल में बसे और आसपास के गांवों में बघासुर पूजन की तैयारियों शुरू हो गई हैं। यह पूजन 21 अक्टूबर कार्तिक महीने की प्रतिपदा से शुरू होगा और नौ दिनों तक चलेगा। पूजा के दौरान पंडाइन के चौरे पर महिलाएं एकत्र होंगी और पूजन करेंगी। इसके लिए मिट्टी से बाघ की प्रतिमाएं बनाई जाने लगी हैं। हालांकि जहां सीमेंट की पक्की प्रतिमाएं बनी हुई हैं वहां मिट्टी की प्रतिमा नहीं बनाते बल्कि चौरे को सजाकर तैयार कर लिया जाता है।
शत्रु नहीं मित्र है बाघ
आदिवासी बाघ को अपना शत्रु नहीं सखा मानते हैं और उसकी पूजा शिव के रूप में करते हैं। हर साल कार्तिक महीने में मनाया जाने वाला पर्व बिहरइयां के नाम से जाना जाता है। आदिवासी गांवों में बघासुर का स्थान तय है और वहां बाघ की एक प्रतिमा बनाकर पूजा की जाती है। बिहरइयां(जवारा) के दौरान यहां आदिवासी पंडाइन चौरा जमाती हैं और पूजा करती हैं। इस दौरान पंडा बाबा किस्सा(कहानी) कहते हैं जिसमें प्रेरणादायी कहानी होती हैं। कहानियां जंगल और जानवरों की सुरक्षा पर आधारित होती हैं
नौ दिन का त्योहार
बैगिन पंडाइन समनी बाई बैगा ने बताया कि पूजन के दौरान बघासुर के स्थान पर और घर की बाड़ी में गहरा गड्ढा खोदकर कलशों में बिहरइयां बोई जाती है। बिरहइयां के पास मिट्टी और धान की फसल से बनाए गए खिलौने भी रखे जाते हैं। नौ दिनों तक यहां पूजन होता है और जंगल के राजा से सुरक्षा की कामना की जाती है। कुंवारी लड़कियां सुरक्षा, शक्ति और सामर्थ्यवान पति पाने की कामना के साथ तीन दिन का व्रत रखती हैं। दीपावली के पांच दिन पहले बिहरइयां का विसर्जन किया जाता है।
होता है गीत- संगीत और नाच-गाना
नौ दिनों तक आदिवासियों के घरों में उत्सव रहता है। इन दिनों में खास तौर से हाथ से बनाई जाने वाली देसी शराब का उपयोग बढ़ जाता है, इसकी वजह यह है कि बघासुर के स्थान पर भी शराब का ही प्रसाद चढ़ाया जाता है। ये उत्सव उमरिया जिले के अलावा डिडौंरी, मंडला और बालाघाट में भी मनाया जाता है।