- राम भारतीय चेतना में इस तरह घुले-मिले हैं कि अभिवादन से लेकर उत्सव तक, हर क्षेत्र राममय है और रामायण का विस्तार इतना अपरिमित है कि यह सिर्फ़ भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं, निकटवर्ती देशों के साहित्य में रामकथा की व्यापकता दृष्टिगोचर होती है।
- तब… हमारा लोकजीवन इससे किस प्रकार अछूता रह सकता था।
लोकसंस्कृति, लोकसाहित्य तथा लोकगीतों को जिस प्रकार रामकथा ने प्रभावित किया है, ऐसा दूसरा कोई और काव्य अलभ्य ही है। सियाराम तथा रामायण के पात्रों से जुड़ी अनेकानेक कथाएं, अनेकानेक गीत लोकजीवन का एक ऐसा अभिन्न अंग बन गए हैं कि उनमें सत्य और असत्य वाला भेद युगों पूर्व मिट चुका है। शेष है तो बस चिरकालिक रामरस-गंगा और उसमें डुबकी लगाने वाले आप और हम मर्त्य मानव।
प्रभु श्रीराम के शिवधनुष भंग करते ही मिथिलावासियों में हर्ष की लहर दौड़ गई। माता जानकी अपनी सखियों के साथ वरमाला लिए धनुषयज्ञ मंडप में पधारीं। मिथिला के समस्त नर-नारी इस दिव्य क्षण में उपस्थित होकर अपने जीवन काे धन्य मान रहे हैं। मां सीता श्रीराम जी के सम्मुख आईं। जयमाला की शुभवेला आन पड़ी थी। हालांकि, ससुराल में जब तक जमाई के साथ सहज और सरल हास्य विनोद न हो तब तक विवाह का रस अधूरा ही रह जाता है। और फिर मिथिला के नर-नारी तो बड़भागी ही समझे जाने चाहिए कि देवीस्वरूपा जानकी मिथिला की कन्या हैं और मर्यादा पुरुषोत्तम राम उनके दामाद हैं। तब भला इतने सलोने, इतने नयनाभिराम, इतने सुहावने रूप में साक्षात ईश्वर को पाकर हर्षोल्लसित मिथिलावासी क्यों न अपने प्रिय दामाद के साथ हास्य-विनोद करें!
जब माता जानकी की सखियों ने देखा कि श्रीरामजी का क़द तो जानकी जी से अधिक है और जयमाला के लिए उन्हें जानकी जी के समक्ष अपना शीश झुकाना ही होगा, तब एक सखी ने रामजी से सरल विनोद में कहा, ‘प्रभु, हम जानते हैं कि आपको झुकने की आदत नहीं है, किंतु अब तो यह आपका ससुराल है और ससुराल में तो अच्छे-अच्छों को झुकना ही पड़ता है। इसलिए हमें न झुकाना पड़े, आप स्वयं ही झुक जाइए।’ इसी पर सखियां मिलकर गाती हैं-
‘ए रघुवर लाला, जयमाला पहीर ली, अपले तो ऋषि-मुनि सबके झुकवली, सिया जी के आगे अब अपनो निहोर ली।’ यानी आपके आगे तो ऋषि-मुनि भी सिर झुकाते हैं, किंतु अब आप सिया जी के सामने अपना सिर झुका ही लीजिए। आगे सखियां विनोद में गाती हैं कि अब तो आप दोनों अपने राज्य अवध न ही जाइए और यहां मिथिला में ही घरजमाई बनकर रहिए। ‘अवध में लौटे के असरा के त्याग दी घर के जमाई बनी मिथिले में रही ली। ए रघुवर लाला जयमाला पहीर ली।’
लेकिन इतने पर भी जब सखियों की बात नहीं बनी, तब एक सखी ने अन्य सखियों से कहा, ‘सुनो-सुनो मैं जानती हूं कि ये बहुत शर्मीले हैं। एक काम करते हैं कि राम जी को चारों ओर से घेर लेते हैं। स्वयं को चारों ओर से घिरा देखेंगे न तो मारे शर्म के स्वयं ही अपना शीश नवा देंगे। और जैसे ही सिर नीचे झुकाएंगे ठीक उसी समय जानकी जी माला डाल देंगी।’ ऐसा निश्चय करके सखियाें ने राम जी को चारों ओर से घेर लिया और पुन: हास-परिहास करती हुईं गीत गाने लगीं-
‘दूलहा के रंग आसमानी, लली के रंग बादामी, काली-काली जुल्फें और लट घुंघराले, कुसुम कली मनमानी, लली के रंग बादामी। नैन कजरारे, अधर अरुणारे, मधुर-मधुर मुसकानी, लली के रंग बादामी। गावहि छबि अवलोकी सहेली…’ सखियों ने ज्यों गाया और लाज के कारण श्रीराम जी का सिर जानकी जी के आगे झुक गया और तब ही- ‘सिय जयमाल राम उर मेली, मगन भई मिथिलानी, लली के रंग बादामी।’ यानी मां सीता ने तुरंत ही रामजी को माला पहना दी। सारी मिथिला मगन हो गई है, उत्सव में डूब गई है।
लाेक के नायक राम
हमारे देश की समृद्ध लोकपरम्परा में यदि कोई एक नाम ध्रुव तारे के समान अवस्थित है तो वह हैं राम। भारतीय मनीषा में राम महज़ एक नाम नहीं हैं, वे पूरी की पूरी संस्कृति, एक समृद्ध और वैभवशाली अतीत तथा इहलोक से परलोक तक की नैया पार लगाने वाले इष्ट देव हैं। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि द्वारा रामायण लिखे जाने के पूर्व भी रामायण श्रुति परम्परा में चिरकाल से चली आ रही थी।
वाल्मीकि रामायण के प्रारम्भ में नारदमुनि महर्षि वाल्मीकि को संक्षिप्त रामकथा सुनाते हैं। रामकथा अनेकानेक क्षेत्रीय भाषाओं में लिखी गई है और फिर रामचरितमानस तो अपनी रचना के बाद आज सबसे अधिक लोकप्रिय तथा जन-जन में रामरस सिंधु प्रवाहित करने वाला महाकाव्य बन चुका है। रामकथा का विस्तार इतना अपरिमित है कि आज भी कई भाषाओं में लोकगायकों और कथावाचकों द्वारा अपने-अपने अंदाज़ में इसे बड़ी सुंदरता से गाया जा रहा है। इसी परम्परा की रामायणों में कई ऐसी अद्भुत व आशातीत कथाएं भी होती हैं, जो स्थानीय तौर-तरीक़ों पर आधारित होती हैं।
ऐसी कई कथाएं लोकगीतों में मिलती हैं, विशेषकर उत्तर भारत में। अवध की जिस पुण्यभूमि में स्वयं श्रीराम ने जन्म लिया, वहां आज भी विवाह के अवसर पर दूल्हे के लिए यह गीत सुनने को मिल जाता है। प्रसंग सिया राम विवाह का है, जब प्रभु राम सहित तीनों भाइयों का विवाह मिथिला में सम्पन्न होने जा रहा है, तब मिथिलावासी गर्व से गाते हैं-
‘आजु मिथिला नगरिया निहाल सखिया, चारों दूल्हा में बड़का कमाल सखिया।’
रामकथा के इतने विविध आख्यान हैं कि राम के जन्म, विवाह, वनगमन, राज्याभिषेक, सीताहरण, अयोध्या वापसी, अश्वमेध यज्ञ आदि प्रसंग गीतों के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। एक उदाहरण देखिए कि केवट सिया राम और लक्ष्मण को गंगा पार करवाते हुए गाते हैं-
‘मोरी नैया में राम सवार, गंगा मइया! धीरे बहो।’
गावहि मंगल मंजुल बानी
पुत्रजन्म के उपलक्ष्य में गाए जाने वाले मंगल गीत ‘सोहर’ कहलाते हैं। वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार, सोहर शब्द संस्कृत भाषा के ‘सूतिगृह’ और प्राकृत के ‘सुइहर’ से बना है। कहीं-कहीं इसे ‘सोहिलाे’ भी कहतेे हैं। सोहर में हास्य, शृंगार और करुण रस की प्रधानता होती है। बाबा तुलसी ने मानस में सोहर के लिए मंगल शब्द का प्रयोग किया है-
गावहि मंगल मंजुल बानी सुनि कलरव कलकंठ लजानी। अवधी के सोहर गीतों में सीता, राम, लक्ष्मण आदि का वर्णन अधिक मिलता है। किसी-किसी गीत में इनका नाम भी गाया जाता है। ‘चैत सुकुल सुभ नौमी जनमे रघुनंदन हो, अरे बाजै लगे आनंद बधाव उठन लगे ‘सोहर’ हो।’ और ‘चैत रामनवमी श्रीरामजी के जनम भये धगरिन त नेग मांगे नार के छिनौनी।’ नवजात शिशु की नाल काटने वाली धांगर जाति की स्त्री को धगरिन कहते हैं। और यहां छिनौनी का अर्थ है नाल काटना। भोजपुरी की समृद्ध विरासत और लोकसंस्कृति में भी रामजन्म के कई प्रकार के सुमधुर गीत सुनने को मिलते हैं- दशरथ के जन्मे ललनवा, अवध में बाजे बजनवा। या राजा दशरथ जी के घरवा, आज जन्मे ललनवा। पुत्रजन्म के अवसर पर स्त्रियां घर के भीतर सोहर गाती हैं और दरवाज़े के बाहर पौरियां (एक प्रकार के देहाती भाट) कोरस में ‘श्रीरामचंद्र जन्म लिहले, चइत रामनवमी’ आदि गीत गाते हैं। ब्रज क्षेत्र जो कि योगेश्वर श्रीकृष्ण की जन्मस्थली है और सारा क्षेत्र ही कृष्णमय है, वहां भी रामायण के कई रूप और आख्यान मिलते हैं। यूं भी राम और कृष्ण भला कब भिन्न हैं! मंगल उत्सव में घर में बधावा गाने वालियां राम के परिवार की बधाई गाती हैं- ‘धनि धनि कौसल्या की कूख, मांग सुहाग भरी।’
ब्रजभाषा के प्रचलित लोकगीतों के अनेक प्रकार और रूप जैसे- बन्ना-बन्नी, कात, सोहर, मंगल, गारी, ढोला आदि में रामायण की घटनाएं और प्रसंग हैं। जहां लोकभाषाओं में मूल रामायण से बड़ी रामायणें तथा अनेकानेक प्रसंग मिलते हैं, वहीं लोक में इस तरह की संक्षिप्त रामायण भी बड़ी प्रसिद्ध है, जो कि किसी कंजूस जजमान या बच्चों को सुना दी जाती है-
‘एक रामहवे एक रावन्ना एक क्षत्रिय हवे एक बामन्ना, वाने वाली नारि हरी वाने वाली नांढ़ि करी बात को बनि गयो बातन्ना, तुलसी भरि दियो पोथन्ना।’
ब्रज के लोकगीतों में रामजन्म को लेकर बड़ी भिन्न और रोचक कथा मिलती है। एक सोहर में महाराज दशरथ और महारानी कौशल्या संतान न होने से दु:खी हैं। विचार-विमर्श के बाद दोनों बैमाता (प्रजनन की देवी शक्ति) की खोज में निकलते हैं। दो वन पार करने के बाद तीसरे वन में बैमाता से उनकी भेंट होती है। कौशल्या द्वारा माता के चरणवंदन करने पर बैमाता आशीष देती हैं कि रानी अपने महल में जाओ, नौ माह के बाद तुम्हारे पुत्र होगा।
एक सोहर में महाराज दशरथ जंगल में जाकर जड़ी-बूटी खोज लाते हैं। तीसरे सोहर में माली को ही बुलाकर उससे जनमबूटी दे जाने को कहा जाता है। बूटी को सिल पर पीसा जाता है। कौशल्या और सुमित्रा बूटी पी लेती हैं और कैकेयी सिल को धोकर पी लेती हैं। इससे कौशल्या के राम, सुमित्रा के लक्ष्मण तथा कैकेयी के चरत और भरत दो पुुत्र पैदा होते हैं। इन लोकगीतों में शत्रुघ्न का नाम नहीं आता है। कुछ गीतों में राम-लक्ष्मण को कौशल्या का पुत्र तथा चरत-भरत को कैकेयी पुत्र बताया जाता है।
‘दशरथ के चारयाै लाल, दिन दिन नीके अधिक नीके लगें। कैकेयी कहिएं चरत भरत, काैसिल्या के लछिमन राम।’
रामलला नहछू
गोस्वामी तुलसीदास की लोकप्रसिद्ध रचना तो मानस है किंतु उन्होंने सियाराम के विवाह का वर्णन करते हुए एक रचना लिखी है, जिसका नाम है रामलला नहछू। हालांकि मतभिन्नता के चलते कुछ विद्वान इसे किसी अन्य कवि की रचना मानते हैं। इसके दो पाठ प्राप्त हुए हैं। पहला प्रकाशित है जिसमें 40 द्विपदियां हैं तथा दूसरे में केवल 26 द्विपदियां हैं। बाबा तुलसी की यह रचना सोहर छंदों में है। नहछू नाख़ून काटने की एक रीति है, जो कि अवध क्षेत्र में विवाह और यज्ञोपवीत के पूर्व की जाती है। अवध से लेकर बिहार तक बरात के पहले चौक बैठने के समय नाइन से नहछू कराने की रीति प्रचलित है। और इस नहछू काे यज्ञोपवीत नहीं बल्कि विवाह के अवसर का ही नहछू माना जाता है क्योंकि रचना में ‘दूलह’ शब्द का प्रयोग हुआ है।
‘गोद लिहे कौसल्या बैठी रामहि बर हो। सोभित दूलह राम सीस पर आंचर हो।’
मिथिलांचल सबसे बड़भागी
बुंदेलखण्ड क्षेत्र में एक विवाह में सम्मिलित हुआ था तो वहां गवैयों से एक गीत सुना- ‘हरे बांस मंडप छाए, सिया जी को राम बिहाने आए।’
और तब तो मिथिला की पुण्यधरा वह पावन भूमि है, जिसे माता जानकी और प्रभु राम के दिव्य विवाह का साक्षी बनने का अवसर मिला था। और मिथिलावासी तब तो सारे संसार से इस बात की शर्त उठा सकते हैं कि वे जो कर सकते हैं वह संसार में कोई नहीं कर सकता। यदि पूछें तो वे कहेंगे कि वे प्रेम से रामजी-लक्ष्मणजी के साथ विनोद कर सकते हैं, उनके लिए ‘गारी’ गा सकते हैं क्योंकि वे उनके पाहुने हैं, दामाद हैं। किसी और के पास यह अधिकार कहां!
एक रामकथा में यह गीत सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। प्रसंग है कि मिथिला में विवाह के समय स्त्रियां रामजी से कुछ सवाल करती हैं और इस पर बड़ा सुंदर गीत है-
‘रामजी से पूछे जनकपुर के नारी बताव बबुआ लोगवा देते काहे गारी’ आगे वे पूछती हैं- ‘हम तोह से पूछि ला हे धनुधारी एक भाई गोर काहे एक भाई कारी, बताव बबुआ लोगवा देते काहे गारी।’
इसी तरह का एक सुमधुर गीत है, जो रामकथाओं में जब कथावाचकों द्वारा गाया जाता है तो श्रोता झूम-झूम जाते हैं। यही रामरस की आनंद है, यही रामकथा की महिमा है। अन्य प्रसंग है कि जब प्रभु भोजन करने बैठते हैं तो मिथिला की नारियां दामाद के लिए गारी गाने बैठ जाती हैं और कहती हैं कि आज तो हम चुन-चुन कर गारी गाएंगी। यथा-
‘छयलवा को दैहो चुनि चुनि गारी, दुलहवा को दैहो चुनि चुनि गारी। जेवत लालन सीध सदन में, गावत सरहज गारी, छयलवा को दैहो चुनि चुनि गारी।’
इन गीतों में यह संदेश ही निहित है कि एक स्वस्थ हास्य किस तरह से किया जाता है और वह ईश्वर तक का मन मोह लेता है। ऐसा ही एक अन्य गीत है जब सियाराम सहित तीनों भाइयों का विवाह सम्पन्न हो जाता है और कई दिनों तक मिथिला में रुकने के बाद श्रीरामचंद्रजी और तीनों भाइयों का सपत्नी अयोध्या लौटने का समय आ जाता है, तब रामजी को मिथिला में ही रहने के लिए सखियां कई तरह के प्रलोभन देती हैं-
‘ए पहुना ए ही मिथिले में रहु ना, जउने सुख बा ससुरारी में, तउने सुख वा कहूं ना, ए पहुना ए ही मिथिले में रहु ना।’
तब लक्ष्मण जी भी विनोद करते हुए कहते हैं कि हम रुक तो जाएं पर आप यहां रुकने का लाभ बताइए, तब कुछ बात बने। तो एक सखी कहती हैं कि आपके भइया रामचंद्रजी को-
‘रोज़ सबेरे उबटन मलके इत्तर से नहवाइब, एक महीना के भीतर करिया से गोर बनाइब, झूठ कहत ने बानी तनिको, मौका एगो देहु ना।’
यानी उन्हें हम रोज़ उबटन और इत्र से स्नान करवाएंगे और एक महीने में ही उन्हें श्याम से गौरवर्णी कर देंगे। और लक्ष्मण जी आपको-
‘नित नवीन मनभावन व्यंजन, परसब कंचन थारी, स्वाद भूख बढ़ि जाइ सुनि सारी सरहज के गारी, बार-बार हम करब चिरौरी, और कछु ही लेहू ना।’
यानी रोज़ आपके पसंदीदा व्यंजन आपको खिलाएंगे और हम सालियों तथा सलहजाें की गारी सुनकर आपकी भूख बढ़ जाएगी। और बार-बार हम आपसे यह भी कहेंगे कि आप और कुछ भी लीजिए न खाने को। लक्ष्मण जी हंसकर पूछते हैं कि ठीक है पर हमारे भरत भइया और अनुज शत्रुघ्न का क्या होगा। तब जानकी जी कि सखियां गाती हैं-
‘कमला विमला दूधमती में झिझरी खूब खेलाईब, सावन में कजरी गा गा के झूला रोज झुलाईब, पवन देव से करब निहोरा, हउले-हउले बहु ना। ए पहुना ए ही मिथिले में रहु ना।’
यानी भरत जी और शत्रुघ्न जी को कमला, विमला और दूधमती जो कि जनकपुर की नदियां हैं, उसमें झिझरी यानी नाव में बैठाकर ख़ूब घुमाएंगे। और सावन में कजरी गा-गाकर रोज़ झूला भी झुलाएंगे। और पवन देवता से विनती करेंगे कि इस समय वे ज़रा धीरे-धीरे चलें। ऐसे सुंदर गीतों में और भावोें की ऐसी अप्रतिम अभिव्यक्ति के लोकगीतों में न जाने किसने प्राण डाले होंगे, जो आज भी भावप्रवणता में मानसिक देह के रोम-रोम को झंकृत कर देते हैं।
हरि अनंत हरि कथा अनंता
रामकथा महज़ एक काव्य नहीं है, वह तो एक ऐसी नदिया है जिसकी इतनी अनेक धाराएं हैं जिन्होंने स्वयं के बूते कई सभ्यताओं का पालन किया है। जनजातीय संस्कृति से लेकर अभिजात्य वर्ग तक में कई तरह के लाेकगीत मिलते हैं। एक उदाहरण देखिए कि अगरिया कोरवा जनजातीय संस्कृति में एक वार्तालाप रूपी गीत मिलता है जिसमें सब मिलकर रावण को दुत्कार रहे हैं-
‘तै रावण बड़े गारभी हो आवत है दूनो तापसी का करिहै आगिनबान का करिहैं चक्रबान, मारिहैं अगिनिबान भूजिहैं अगिनिबान जीउ लेलीहै उहै हो तै रावण बड़े गारभी हो।’
यानी रावण तुम बड़े घमंडी हो, रुको ज़रा, दोनों तपस्वी राम और लक्ष्मण आ रहे हैं, तुम्हारे अग्निबाण और चक्रबाण उनके तेज के सामने नाक़ामयाब रहेंगे और उनके पास भी अग्निबाण तथा चक्रबाण हैं जिससे तुम भस्म हो जाओगे। इसलिए गर्व छोड़कर उनकी शरण में जाओ। यह गाते हुए समुदाय के लोग घेरे में घूम कर नृत्य करते हैं और उनमें से दो-दो पात्र बाना (एक प्रकार का त्रिशूल) जीभ छेद लेते हैं। भारत की सांस्कृतिक विरासत इतनी समृद्ध, विविधतापूर्ण और अनेकानेक रंगों को समेटे हुए है कि उसे एक बार में बांच पाना सम्भव ही नहीं। और रामकथा पर क्षेत्रीय भाषाओं की सूची इतनी लम्बी है जैसे प्रभु हनुमान की पूंछ। और मुझ जैसा कला और साहित्यप्रेमी तो यही प्रार्थना करेगा कि इसमें उत्तरोत्तर उन्नति हो। इतना तो तय है कि भारतीय चेतना के प्राण में सियाराम बसते हैं और जानकी राम ही वे धुरी हैं जिसके इर्द-गिर्द यह महान सभ्यता सदियों से पोषित होती रही है। अंत में एक गीत याद आता है जो अयोध्या के कनक भवन सरकार मंदिर में सुना था, जिसे श्रद्धालुजन भावविभाेर होकर स्वयं को श्रीचरणों में समर्पित करके गीत प्रभु को सुनाते हैं-
‘अवध सइयां मोरी छोड़ो न बहियां, सिया के सइयां मोरी छोड़ो न बहियां, तुम जानत सब अवगुण मेरो, तुमसे नाथ छिपो नइयां, मोरी छोड़ो न बहियां।’ यानी हे प्रभु आप हमारा हाथ कभी न छोड़ना। आप तो मेरे सब अवगुण जानते हो, आपसे भला क्या छिपा है। लेकिन आप कभी भी मेरा हाथ न छोड़ना।
हमारी भी सियाराम चरणों में यही विनती है।