उत्तर भारत में बढ़ती गर्मी और कम होती वोटिंग से किसके छूटेंगे पसीने?

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देश में लोकसभा चुनाव हो रहे हैं। सात चरणों में होने वाले चुनाव के दो चरण की वोटिंग पूरी हो चुकी है। हालांकि, इस बार वोटिंग को लेकर लोगों में रुझान पिछले बार के मुकाबले भी कम दिख रहा है। लोकसभा चुनाव के पहले चरण की तरह दूसरे चरण में भी वोटिंग 2019 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले कम हुई है। पहले चरण में 21 राज्यों की 102 लोकसभा सीटों पर 64 प्रतिशत वोटिंग हुई थी। जबकि पिछले लोकसभा चुनाव में उन सीटों पर भी 70 प्रतिशत से ज्यादा मतदान हुए थे। ऐसे ही इस बार दूसरे चरण में 13 राज्यों की 88 लोकसभा सीटों पर करीब 63 फीसदी वोट पड़े। यह 2019 के लोकसभा चुनाव में 70.09% मतदान के मुकाबले काफी कम रहा। यूपी, बिहार, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में वोटिंग उम्मीद से काफी कम रही। यूपी में 54.85%, बिहार में 55.08% , महाराष्ट्र में 57.83% , एमपी में 57.88 % वोटिंग हुई। सबसे अधिक वोट त्रिपुरा, मणिपुर, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में पड़े।

गर्मी की वजह से कम हो रहा मतदान?

लोकसभा चुनाव में कम वोटिंग की एक वजह भीषण गर्मी और लू को भी माना जा रहा है। पहले पूर्वोत्तर भारत और अब उत्तर भारत में लू के हालात हैं। यूपी से लेकर बिहार तक भीषण गर्मी पड़ रही है। ऐसे में चुनाव प्रचार पर भी असर देखने को मिल रहा है। वहीं, कम वोटिंग प्रतिशत ने राजनीतिक दलों की टेंशन बढ़ा दी है। मौसम विभाग ने पहले ही भविष्यवाणी की है कि इस बार अप्रैल के अंत तक ही 40 डिग्री को पार कर जाएगा। भीषण लू और गर्मी के बीच मतदान और इसे जुड़ी तैयारियों को लेकर चुनाव आयोग से लेकर मौसम विभाग कवायद में जुटे हुए हैं। दो दिन पहले ही चुनाव आयोग के अधिकारियों ने मौसम विभाग के अधिकारियों के साथ मीटिंग की। भारत मौसम विज्ञान विभाग में मौसम विज्ञान के महानिदेशक मृत्युंजय महापात्र का कहना है कि आईएमडी चुनाव आयोग के साथ लगातार संपर्क में है। मौसमी पूर्वानुमानों के साथ,मौसम विभाग की तरफ से मासिक, सप्ताह-वार और रोजमर्रा के पूर्वानुमान कर रहे हैं। इसके अलावा चुनाव आयोग को गर्मी के बारे में पूर्वानुमान दे रहे हैं। इससे पहले, 11 अप्रैल को प्रधानमंत्री ने भी गर्मी के मौसम की तैयारियों से जुड़ी समीक्षा के लिए मीटिंग बुलाई थी।

किसके छूटेंगे पसीने?

अब सवाल है कि इस बार कम वोटिंग परसेंटेज से किसके पसीने छूटेंगे। हालांकि, सीधे तौर पर कम वोटिंग परसेंट से जुड़े नतीजों को लेकर कुछ नहीं कहा जा सकता है। साथ ही यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि मतदान प्रतिशत और चुनावी परिणामों के बीच कोई मजबूत संबंध नहीं है। 1957 से 2019 तक 16 चुनावों के विश्लेषण से पता चलता है कि 10 बार वोटिंग प्रतिशत बढ़ने की स्थिति में 6 बार सत्ताधारी दल ने वापसी की। इसके विपरीत, मतदान में गिरावट के 6 मौके ऐसे थे जब, 4 बार विपक्षी दलों ने सरकार बनाई। 1980 में मतदान प्रतिशत कम होने के बाद जनता पार्टी को हराते हुए कांग्रेस ने वापसी की थी। वहीं, 1980 में वोटिंग प्रतिशत में कमी का नतीजा कांग्रेस के हाथों से सत्ता जाने के रूप में सामने आया था। 1991 में जब मतदान प्रतिशत में गिरावट हुई तो कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई थी। हालांकि, 1999 में वोटिंग प्रतिशत में गिरावट के बावजूद सरकार नहीं बदली थी। साल 2004 में वोटिंग प्रतिशत में कमी का नतीजा विपक्षी दलों की सत्ता में वापसी के रूप में सामने आया था। हालांकि, एक बात तो तय है कि मतदान प्रतिशत कम होने से हार-जीत का कम अंतर रहने वाली सीटों पर सीधा असर पड़ता है। वहां मुकाबला काफी करीबी हो जाता है। ऐसे में फैसला किसी के भी पक्ष में जा सकता है। वहीं, कुछ जानकारों का मानना है कि कम वोटिंग प्रतिशत से सत्ताधारी दल को फायदा होता है। माना जाता है कि लोग सरकार के कामकाज से संतुष्ट होते हैं। ऐसे में वे बदलाव नहीं चाहते तो वे वोट देने के लिए घरों से बाहर नहीं निकलते हैं।

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