अफगानिस्तान को अमेरिका ने क्यों छोड़ा,अहम सवाल जिसके जवाब की है तलाश

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9/11 की 20वीं बरसी पर दुनिया के सामने बड़ा सवाल यह है कि अफगानिस्तान से अमेरिका के निकलने से क्या मिला। क्या 20 साल पहले जो तालिबान अमेरिका को खटकता था, जिसके लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान में लाव लश्कर उतार दी, हजारों सैनिकों की शहादत दी, करोड़ों करोड़ में पानी पैसे की तरह बहाया वो सब एक बहुत बड़ी भूल थी या उनकी रणनीति का हिस्सा। यह सवाल मौजूं इसलिए है कि तालिबान जो इस समय सत्ता में है उनमें सभी चेहरों के हाथ खून से रंगे हैं। अमेरिका अपनी सफाई में चाहे जो कुछ कहे आज दुनिया के सामने अलग तरह का चुनौती है, चुनौती इस बात कि तालिबान को वो किस रूप में देखें। ब्रिक्स सम्मेलन में जहां एक तरफ भारत ने चिंता जताई तो रूस ने भी चिंता जताई कि अफगानिस्तान के पड़ोसी मुल्कों को आतंकवाद के ज्वार का सामना ना करना पड़े इसके लिए हमेशा तैयार रहने की जरूरत होगी। लेकिन मूल सवाल वही है कि अमेरिका ने अफगान जनता को 20 वर्ष तक चकाचौंध दिखाकर मध्य युग की तरफ क्यों ढकेल दिया। 

अमेरिका, अफगानिस्तान और रूस के संबंध समझना जरूरी
इस सवाल के जवाब को समझने के लिए अमेरिका, अफगानिस्तान और रूस के संबंधों को समझना होगा। 1980 के दशक में अफगानिस्तान में जब रूस का दबदबा बढ़ने लगा था को अमेरिका के सामने मुश्किल यह थी कि वो किस तरह से रूस का प्रतिरोध कर सके। अगर  इन तीनों देशों की भौगोलिक स्थिति को देखें तो अमेरिका के लिए अफगानिस्तान में सीधी पहुंच बनाना मुश्किल था, लिहाजा उसने उन युवाओं को खास तौर पर ट्रेनिंग देना शुरू किया जो रूस के साथ सीधी लड़ाई लड़ सकें और जो ताकत बनी उसे तालिबान कहा गया। तालिबान का शाब्दिक अर्थ तो स्टूडेंट होता है। लेकिन अमेरिका ने उन छात्रों  के समूह को इस तरह ट्रेन  करना शुरू किया ताकि वो रूस के साथ साथ अपने सरकार के खिलाफ भी बगावती सुर अख्तियार करें और  अमेरिका अपने मंशा में कामयाब भी रहा।

समय चक्र बदला, तालिबान बना भस्मासुर
समय चक्र बदला, रूस टूट चुका था । दुनिया बाइपोलर से यूनी पोलर हो चुकी थी और अमेरिका सर्वेसर्वा बन बैठा। लेकिन यहीं से अमेरिका की मुश्किल भी बढ़ने लगी। खास तौर से अरब देशों और इजरायल के मसले पर अमेरिकी रुख से कट्टरपंथी इस्लामिक ताकतों को लगने लगा कि अब तो इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन अमेरिका है और उस भावना के साथ अल कायदा जैसे संगठनों को बल मिला।  उसका नतीजा वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले के तौर पर दिखाई दिया। हमले का जो तरीका चुना गया था वो अलग और बेहद खतरनाक था जिसकी कल्पना अमेरिका ने भी नहीं किया था। अमेरिका ने जब अपनी छानबीन बढ़ाई तो इस नतीजे पर पहुंचा कि अल कायदा के साथ तालिबान भी शामिल था और तालिबान को सबक सिखाने के लिए उसे सत्ता से हटाना ही होगा। इस नजरिए के साथ उसने मुहिम शुरू की। अपने छत्रछाया में लोकतांत्रिक सरकार का गठन कराया। लेकिन तालिबानियों ने माना कि वो अब अमेरिका के गुलाम हो चुके हैं। 

क्या अमेरिका मौकापरस्त निकला?
पिछले 20 वर्षों में अफगानिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार ना सिर्फ अमेरिका ने बल्कि दूसरे देशों ने भी मदद की। ये बात अलग है कि जिस तरह से तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया और उससे पहले राष्ट्रपति रहे अब्दुल गनी भाग गए कहीं न कहीं बड़े सवाल छोड़ गया। इस विषय पर जानकार कहते हैं कि अमेरिका को लगता है कि अब उसके लिए दक्षिण चीन सागर में चीन बड़ी चुनौती है, लिहाजा बडी लड़ाई लड़ने के लिए अफगानिस्तान से निकलना ही होगा। अमेरिका ने जब अफगानिस्तान को छोड़ा तो तर्क भी दिया कि जितने समय तक उसे अफगानिस्तान के लिए काम करना था कर चुका है। इसके अलावा दूसरी राय यह है कि अमेरिका अपने फायदे और नुकसान को तौलता है, जब उसे लगने लगा कि अफगानिस्तान में बने रहना अब घाटे का सौदा है तो उसने उस मुल्क उसके हाल पर छोड़ दिया।

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