रजा मुराद बोले-राज कुमार राव जब भी कहीं मिलते हैं तो पैर छूते हैं, मेरे बहुत संस्कारी विद्यार्थी रहे

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रजा मुराद बॉलीवुड में 50 से ज्यादा साल में 500 से ज्यादा फिल्में कर चुके हैं। ऋषिकेश मुखर्जी (नमक हराम), राज कपूर (प्रेमरोग, राम तेरी गंगा मैली, हिना) और संजय लीला भंसाली (रामलीला, पद्मावत, बाज़ीराव मस्तानी) जैसे फिल्म मेकर्स के पसंदीदा कलाकार रहे रजा मुराद पुणे के एफटीआईआई में एक्टिंग टीचर भी रहे हैं। राज कुमार राव वहां उनके स्टूडेंट थे। टीचर्स डे के मौके पर उन्होंने बतौर एक एक्टिंग टीचर अपने अनुभव ‘दैनिक भास्कर’ से शेयर किए हैं।

जज्बात ने बनाया टीचर
मैं खुद एफटीआईआई का प्रोडक्ट हूं। 1969 से 71 में मैं वहां विद्यार्थी था। एक जज्बाती रिश्ता था वहां से, तो मुझे लगा कि मैंने जो सीखा और बाद में तजुर्बे से जो कुछ मुझे जानने मिला वह मैं बच्चों के साथ बांटूं। पैसे से कोई ताल्लुक नहीं था। सिर्फ इसी जज्बात की वजह से मैं वहां टीचर बना और 2005 से 2009 तक सिखाया। एक मनोवैज्ञानिक सुकून मिलता है कि आपने कुछ किया बच्चों के लिए, आप कुछ सिखा पाए। मेरा यही मकसद था वहां जाने का। और बड़ा अच्छा लगता था वहां जाकर।

राज कुमार राव आदर्श विद्यार्थी
एक टीचर के कई तरह के स्टूडेंट होते हैं। मुझसे सीखने के बाद आज कुछ स्टूडेंट सेट पर या कहीं मिल जाते हैं तो पैर छूते हैं। राज कुमार राव ऐसा ही संस्कारी बच्चा है। जहां भी मिलते हैं तो पैर छूकर प्रणाम करते हैं। वे कई बार इंटरव्यू में हमारा जिक्र करते हैं।

फिल्मफेयर फंक्शन में भी उन्होंने स्टेज से बताया था कि सामने मेरे गुरुजी रजा मुराद साहब बैठे हैं। जिनसे हमने डिक्शन सीखा है। पर हर स्टूडेंट में यह बात नहीं होती। अब वह गुरु-शिष्य का रिश्ता नहीं रहा। अब ज्यादातर रवैया यह रहता है कि ठीक है, आपने सिखाया था तो सिखाया होगा।

टीचिंग मेरा पेशा नहीं
मैं स्टूडेंट से यही कहता था कि मैं कोई प्रोफेशनल टीचर नहीं हूं, टीचिंग मेरा पेशा नहीं है, टीचिंग से मेरी रसोई नहीं चलती है। यह तो मेरा शौक है और मैं प्यार से आता हूं। अगर आपको सीखने का शौक है, तो मुझे आपको सिखाने का शौक है और अगर आपको सीखना नहीं है तो दुनिया का कोई भी टीचर आपको सिखा नहीं सकता।

डिक्शन, स्पीच और सीन के क्लासेस
मैं डिक्शन और सीन के क्लासेस लेता था, डिक्शन की स्क्रिप्ट और सीन मैं खुद लिखता था। एक बार स्टूडेंट के कहने पर मैंने शुद्ध उर्दू में स्क्रिप्ट लिखी थी और बच्चों को अल्फाज सिखाए थे। मैं वक्त निकालकर जाता था और दो टाइम क्लासेस लेता था। दो क्लासेस लंच से पहले और दो क्लासेस लंच के बाद रहते थे, वह मेरा रूटीन था।

कुछ के लिए एफटीआईआई सिर्फ एक पासपोर्ट
कुछ विद्यार्थी एफटीआईआई को फिल्म इंडस्ट्री में जाने का पासपोर्ट ही मानते थे। जो सीखने के लिए आते थे वे सीख लेते थे। जो स्टार बनने के नजरिए से आते थे वे शुरू से अपने आपको स्टार मानते थे और यही चाहते थे कि बस पासपोर्ट मिल जाए।

पंद्रह मिनट के बाद क्लास में नो एंट्री
बहुत से हमारे विद्यार्थी थे वे समय पर नहीं आते थे। मैं दस मिनट तक उनका इंतजार करता था। अगर 11 बजे की मेरी क्लास है, तो सवा ग्यारह बजे मैं चटकनी लगा देता था। उसके बाद फिर मैं किसी को एंट्री देता नहीं था।

बरमूडा पहनकर आए तो निकाला बाहर
मेरे कुछ अनुशासन थे। मैं स्टूडेंट से कहता था कि आप बॉक्सर पहनकर या हाफ पैंट पहनकर क्लास में मत आइए। वैसे कोई यूनिफॉर्म नहीं था। पर मैं कहता था कि आप पायजामा, पैंट या जींस जो भी डीसेंट लिबास है वह पहनकर आइए। कई बार ऐसा हुआ कि बॉक्सर पहनकर आए स्टूडेंट को मुझे वापस भेजना पड़ा।

लो अटेंडेंस के चलते पढ़ाना छोड़ दिया
मैं जब विद्यार्थी था तब हमारे बैच में हाईएस्ट 100% और लोएस्ट 94% अटेंडेंस रहती थी। पर जब मैं क्लासेस ले रहा था तब 21 में से 16 स्टूडेंट प्रि-लंच क्लास में आते थे और लंच के बाद आठ ही लोग वापस आते थे। वे हर चीज को बड़े ईजी तरीके से ले रहे थे। मैंने कह दिया कि अगर आपको सीखने का शौक नहीं है तो मैं क्यों खामखा अपना वक्त, अपनी एनर्जी यहां बर्बाद करूं। फिर मैंने वहां जाना छोड़ दिया।

अब वह लगन नहीं रही
हमारे जो प्रोफेसर थे, वे हमारे मां-बाप के बाद हमारे सब कुछ थे, रोशन तनेजा हमारे पिता समान थे। हम उन्हें भगवान के रूप में देखते थे। चाहते थे कि जितना इनसे सीख सकते हैं, सीख लें। अब तो समय बदल गया है, जेनरेशन बदल गई है, लोगों के सोचने का तरीका बदल गया है। उस जमाने में हम लोगों में जितनी लगन थी, वह लगन मुझे मेरे सिखाने के जमाने में दिखाई नहीं दी।

प्राण, अरुणा ईरानी और शत्रुघन सिन्हा मेरे गुरु
क्लास के अलावा जिंदगी में भी आपको सिखाने वाला आपका गुरु होता है। फिल्म इंडस्ट्री में प्राण साहब, अरुणा ईरानी और शत्रुघन सिन्हा इन तीन को मैं अपना गुरु मानता हूं। प्रोफेशनलिज्म इंस्टीट्यूट में नहीं सिखाया जाता। मैं इन लोगों से काम करने का रवैया, प्रोफेशनलिज्म और बहुत सारी बातें सीखी हैं।

शत्रुघन सिन्हा पटना से खाली हाथ अकेले आए थे। किसी लीडर के सिफारिश का खत नहीं था उनके पास। उनके यहां कोई रिश्तेदार नहीं थे। अपने ही बलबूते पर उन्होंने एक अच्छी जगह बनाई। उनको मैं आज भी हर गुरुपूर्णिमा और हर टीचर्स डे पर फोन करता हूं और आशीर्वाद लेता हूं। प्राण साहब तो अब रहे नहीं और अरुणा जी से मैं टच में नहीं हूं। पर दिल से मैं उनको भी अपना गुरु मानता हूं।

टीचर उजाला बांटकर फिर अंधेरे में चले जाते हैं
मैं सारे टीचर्स को प्रणाम करता हूं। वे विद्यार्थी को सिखाने के लिए पूरी जिंदगी दे देते हैं और फिर एक दिन रिटायर हो जाते हैं। वे उनकी जिंदगी में ज्ञान का उजाला बांटने के बाद खुद अंधेरे में चले जाते हैं। फिर उनको कोई पूछता नहीं है। मेरा दिल उनके लिए बहुत दुखता है।

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