साख के संकट से जूझती राजनीति: जीएन वाजपेयी

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तने बड़े पैमाने पर अज्ञानता और गरीबी होने के बावजूद भारत में लोकतंत्र का स्वरूप देखकर दुनिया को बड़ा अचंभा होता है। भारत 20वीं सदी में राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करने वाले चुनिंदा देशों में से एक है जहां मतदान के आधार पर ही रक्तहीन सत्ता हस्तांतरण हुआ है। लोकतंत्र के रूप में दुनिया में सबसे अधिक सराहे जाने वाले अमेरिका के निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के उलट भारत में मुख्य चुनाव अधिकारी द्वारा के प्रमाण पत्र को सभी प्रत्याशी गरिमापूर्वक स्वीकार करते हैं। यहां तक कि प्रमुख अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने भी अपने हालिया अंक में यह लिखा है कि भले ही भारत में कुछ संस्थानों का पराभव हो रहा हो, परंतु वहां लोकतंत्र का अस्तित्व अक्षुण्ण है।

स्वतंत्रता के बाद उच्च सरकारी पदों पर स्वतंत्रता सेनानी या अपने क्षेत्रों में महारत हासिल कर चुके भद्र लोग ही आसीन हुए। उन्होंने एक आधुनिक लोकतांत्रिक गणतंत्र की स्थापना कर नागरिकों की सेवा की। यह सेवा उन्होंने उस देशभक्ति के कारण की जो उनके मूल सिद्धांतों में शामिल थी। उनके शब्दों और फैसलों ने यही जाहिर किया। मुझे 1996 में अंडमान स्थित सेल्युलर जेल देखने का अवसर मिला जो ‘काला पानी’ के नाम से कुख्यात थी। वहां स्वतंत्रता सेनानियों को भयावह प्रताड़नाएं दी जाती थीं। उनमें से तमाम ने भावी पीढ़ियों के बेहतर भविष्य के लिए अपना जीवन उन्हीं कष्टों में होम कर दिया। वहां उन सेनानियों से जुड़े रजिस्टर में दर्ज एक वाकये ने मुझे बहुत मर्माहत किया। वह एक ऐसे कैदी से जुड़ा था जिसे फांसी होने वाली थी। उसने रिहा हुए अपने साथी के जरिये गांव वालों को यही संदेश भिजवाया कि वह उन्हें यही बताए मैं अपना फर्ज निभा चुका हूं और अब उन्हें अपना कर्तव्य निभाना होगा। उस दौरे में मेरी सबसे छोटी बेटी भी साथ थी जिसकी उम्र तब 15 वर्ष रही होगी। उसने मुझसे उस संदेश का मर्म समझाने को कहा। मैंने कहा कि संभव है कि गांव को उनका संबोधन मात्र एक प्रतीक हो और वह समूचे देश को यह संदेश देना चाहते हों कि उनके बलिदान से देश को राजनीतिक स्वतंत्रता मिली और यह अगली पीढ़ियों की जिम्मेदारी है कि वे लाखों लाख गरीबों के आर्थिक उद्धार की लड़ाई लड़ें।दक्षिण कोरिया, मलेशिया और सिंगापुर जैसे अधिकांश पूर्वी एशियाई देशों को भी 20वीं शताब्दी में आजादी मिली और उन्होंने व्यापक स्तर पर गरीबी दूर करके संपन्नता की राह पकड़ी है। वहीं भारत गरीबी उन्मूलन और आम आदमी को संपन्न बनाने की दिशा में अभी भी संघर्ष ही कर रहा है। वहीं बीते कुछ दशकों के दौरान भारतीय लोकतंत्र के संचालन में व्यापक गिरावट देखने को मिली है। जनप्रतिनिधियों और सरकार में महत्वपूर्ण पद संभालने वालों की गुणवत्ता को देखकर इसका स्पष्ट आभास होता है। बताया जाता है कि देश में फिलहाल 36 प्रतिशत सांसद और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। पारिवारिक मिल्कियत जैसे राजनीतिक दल, धार्मिक हितों से जुड़े समूह, धनबल-बाहुबल और उत्तराधिकार की महत्ता खासी बढ़ गई है। यहां तक कि अगर कुछ विषय विशेषज्ञ पेशेवरों को भी सरकार में महत्वपूर्ण पद मिलते हैं तो अधिकांश मामलों में वे भी पद प्रदान करने वाली पार्टी के अससान तले ही दबे रहते हैं और किसी वाजिब मसले पर एक राजनेता के रूप में अपनी आवाज बुलंद करने से हिचकते हैं। कई राजनीतिक दल शासन के स्तर को सुधारने और आर्थिक विकास को गति देने के लिए समय-समय पर ऐसे पेशेवरों का अपने खेमे में स्वागत करते हैं। हालांकि इससे भी हालात बहुत अधिक नहीं बदले। प्रत्येक विधानसभा और आम चुनाव में यह दिखता भी है। हालिया बिहार विधानसभा चुनाव भी इसके गवाह बने। उसमें यही दिखा कि ऐसे जो लोग राजनीतिक परिदृश्य में अपना वजूद बचाए रखने में सफल हुए वे खुद रंग बदलकर दूसरों के जैसे बन गए।बहरहाल सार्वभौमिक मताधिकार और एक व्यक्ति-एक मत वाले उस लोकतंत्र में जहां अशिक्षा और आर्थिक विपन्नता व्यापक रूप से पसरी हुई हो, वहां बड़ी संख्या में अयोग्य व्यक्तियों के चुने जाने की संभावनाएं एवं गुंजाइश काफी बढ़ जाती हैं। ऐसे में सक्षम, ईमानदार और प्रेरित करने वाले नेताओं के लिए पर्याप्त जगह बनानी होगी। हालांकि अनुभवजन्य साक्ष्यों के अभाव में ऐसे नेताओं की कमी के कारण तलाशना कठिन हैं वह भी तब जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी पिछड़ी हुई है और लाखों लोग आर्थिक मुश्किलों को झेल रहे हैं। इसके बावजूद कृषि सुधारों जैसे मसलों पर राजनीतिक सहमति बन पाना मुश्किल है। यह स्थिति तब है जब हर एक नेता गरीब किसानों के कल्याण की कसमें खाकर नमक का हक अदा करने का दावा करता है।हमें यह नहीं भूलना होगा कि ढांचागत सुधारों के अभाव में संस्थागत सुधार अर्थव्यवस्था के लिए पूरी तरह फलदायी नहीं हो सकते। आइबीसी इसका एक उदाहरण है। संस्थागत सुधारों में जहां गड़बड़ियां और निहित स्वार्थ बेलगाम होते हैं, सभी पक्षों की सहमति के अभाव में उनकी राह खुल पाना असंभव होगा। उधर सत्ता में आने पर प्रत्येक राजनीतिक दल और उसके मंत्री बने नेता यही दावा करते हैं कि उनका हर एक कदम गरीबों के हित में उठाया गया है। इसके साथ ही ‘प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद’ का पिटारा खुलता ही जाता है। फिर उसके तात्कालिक और दीर्घकालिक आर्थिक परिणामों की परवाह नहीं की जाती। असल में अधिकांश समय तो संकीर्ण राजनीतिक हितों की पूर्ति में ही लग जाता है। वे एक मामूली नेता (पॉलिटिशियन) और महान राजनेता (स्टेट्समैन) के बीच अंतर को समझने से ही इन्कार करते हैं। जबकि सरकार में होने का तकाजा ही यही होता है कि नेता एक राजनेता के रूप में उभरकर अधिक से अधिक लोगों की भलाई के लिए कदम उठाएं न कि अपने राजनीतिक दल के हितों को पोषित करें। अफसोस की बात यही है कि परिपक्व लोकतंत्रों में भी राजनेताओं की प्रजाति धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है।

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